१८ दिसंबर, १९७१

 

  मैंने श्रीअरविंदके लिखी हुई कुछ चीज सुनी है जिसमें वे कहते है कि अतिमानसके धरतीपर अभिव्यक्त होनेके लिये भौतिक मनकों उसे ग्रहण करना और अभिव्यक्त करना होगा -- और अब केवल भौतिक मन, यानी, शरीरका मन ही मेरे अंदर बच गया है । और तब, कारण स्पष्ट हों जाता है कि इसीलिये केवल यही भाग रह गया है । वह बहुत तेजीके साथ और बड़े मजेदार तरीकेसे परिवर्तित हों रहा है । यह भौतिक मन अतिमनके प्रभावके अधीन विकसित हो रहा है । श्रीअरविंदने ठीक यही बात लिखी है कि अतिमनके स्थायी रूपमें धरतीपर प्रकट होनेके लिये यह अनिवार्य है।

 

  तो यह भली-भांति चल रहा है... लेकिन यह सरल नहीं है (माताजी हंसती हैं) ।

 

जी हां, यही समस्या है जिसे मैंने अपने आगे रखा था, क्योंकि मैंने एक बात देखी है कि यह रूपांतर तबतक संभव नहीं है जबतक चेतनाकी स्थितिमें कोई आमूल परिवर्तन न हो या दृष्टिका परिवर्तन न हो... ।

 

हां ।

 

   जबतक कि मनुष्य वस्तुओं और सत्ताओंको किसी और तरहसे न देखे ।

 

हां, हां !

 

   लेकिन तब मै अपने-आपसे पूछता हूं कि यह कैसे संभव है?

 

यह इस तरह संभव है ।

 

   लेकिन यह कोई बहुत ही मौलिक चीज होनी चाहिये ।

 

लेकिन, वत्स, यह मौलिक हैं । यह कल्पना मत करो कि यह... मैं

 


सचमुच कह सकती हूं कि मैं एक और ही व्यक्ति बन गयी हूं । केवल यह (माताजी शरीरके बाहरी रूपको छूती हैं) वही रह गया है जो पहले था... । यह किस हदतक बदल सकेगा? श्रीअरविंदने कहा है कि अगर भौतिक मन रूपांतरित हों जाय तो स्वभावत: शरीरका रूपांतर हो जायगा । देखें ।

 

   लेकिन क्या आप मुझे इस मौलिक परिवर्तनकी चाबी या उत्तोलक दे सकती हैं?

 

आह! मुझे नहीं मालूम, क्योंकि मेरे लिये, हर चीज बस, मुझसे लें ली गयी है - मन पूरी तरह जा चुका है । अगर तुम बाहरी रूपमें देखो तो मै मूढ़ बन गयी थी, मै कुछ भी न जानती थी । और यह भौतिक मन थोडा-थोडा करके उत्तरोत्तर अंतःप्रकाशोंके द्वारा विकसित हुआ । अपने बारेमें मै नहीं जानती, मेरे लिये काम कर दिया गया है -- मैंने कुछ भी नहीं किया । यह बिलकुल मौलिक रूपमें कर दिया गया ।

 

   यह किया जा सका क्योंकि मै अपने चैत्य पुरुषके बारेमें (उस चैत्यके बारेमें जिसे समस्त जीवनोंमें रूपायित किया गया है) बहुत सचेतन थी । मै बहुत सचेतन थी और वह बना रहा; यह बना रहा और उसने बिना किसी बाहरी अंतरके मुझे लोगोंके साथ व्यवहार करने दिया । यह इस चैत्य उपस्थितिके कारण हुआ । इसीलिये बाहरी तौरपर इतना कम परि- वर्तन हुआ है । इसलिये मै उतना ही कह सकती हू जितना मैं जानती हू और मै' कहती हू : चैत्य पुरुषको समस्त सत्ताके ऊपर शासन करते हुए रहना चाहिये - समस्त शारीरिक सत्ता -- और जीवनका पथ-प्रदर्शन करना चाहिये; तब मनोमय पुरुषको अपने-आपको रूपांतरित करनेका अवसर मिलेगा । मेरा अपना मन तो बस यहांसे भेज दिया गया है ।

 

   हां तो, अब शारीरिक मनका रूपांतर अनिवार्य हों गया क्योंकि मेरे अंदर वही था, उससे अधिक कुछ नहीं, समझे?... बहुत कम लोग इस स्थितिको स्वीकार करेंगे । (हंसते हुए) मेरे लिये तो यह मेरी राय पूछे बिना ही कर दिया गया! कार्य बहुत आसान था ।

 

  ठीक यही चीज हुई है ।

 

     मैं कोई मूलभूत परिवर्तन चाहता हूं... ।

 

 (माताजी हंसती हैं) क्या तुम वह स्वीकार करोगे जो मेरे साथ हुआ है, यानी, व्यक्ति अपने-आपको पूरी तरहसे जड़-मति अनुभव करे?

 

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   मैं तैयार हूं ।

 

क्या वह तुम्हें निराश न कर देगा?

 

   जी नहीं, नहीं-- बिलकुल नहीं ।

 

हां, तो यह एक ऐसी चीज है जो अपने-आपको स्थायी रूपसे प्रतिष्ठित कर लेती है : वह है व्यक्तिकी शून्यता -- उसकी पूरी-पूरी शून्यता, अक्षमता । तब तुम... आरामसे रहते हो, तुम बिलकुल स्वाभाविक रूपसे बच्चे जैसे हो जाते हो; तुम भगवान्से कहते हों : ''मेरे लिये सब कुछ कर दो'' ( मुझे और कुछ नहीं करना, मैं और कुछ नहीं कर सकता!)? तब सब कुछ तुरंत ठीक हो जाता है -- तुरंत ।

 

  हां, शरीरने अपने-आपको पूरी तरह दे दिया है, उसने भगवान्से यहां- तक कहा. ''मैं आपसे प्रार्थना करता हू कि यदि मुझे मरना हों तो मै विघटनके लिये संकल्प करूं,'' ताकि यदि शरीरका मरना जरूरी हो तो वहांपर भी मैं प्रतिरोध न करूं -- बल्कि विघटनके लिये संकल्प करूं । उसकी यही वृत्ति है, यह इसी तरह था ( खुले हाथोंकी मुद्रा) । और उसकी जगह एक प्रकारका... (मैं उसे शब्दोमें अनूदित कर सकती हूं, पर वे शब्द न थे) : ''अगर तुम रोग और पीड़ा स्वीकार करो तो रूपांतर विघटनसे अधिक अच्छा है । '' इसलिये जब रोग आता है तो वह स्वीकार कर लेता है ।

 

  यह वह नहीं है, मैं जो कहती हूं... । यह सचमुच वह नहीं है, लेकिन इसे समझाना कठिन है । वास्तवमें, यह एक नयी वृत्ति और नया संवेदन है । मैं कह नहीं पाती ।

 

  और स्पष्टत: यह हर एकके लिये अलग होगा... । मेरे लिये बहुत ही उग्र था - मेरे लिये कोई चुनाव न था, समझे : यह ऐसा ही था, ऐसा ही था यह । लो, बस ।

 

  लेकिन वास्तवमें यह जरूरी है... जिस चीजने इसे सरल बना दिया वह यह है कि चैत्य चेतना पूरी तरह आगे थी और वही जीवनपर शासन करती थीं । इसलिये वह बिना अस्तव्यस्त हुए चुपचाप चलता रहा ।

 

   देखने और सुननेके बारेमें मुझे पता लगा कि यह भौतिक हास न था, वह केवल इतना था : अगर लोग बोलते समय स्पष्टताके साथ सोच रहे हों तो मै उनकी बात समझ लेती हूं । मैं केवल वही देखती हूं जो... आंतरिक जीवनको अभिव्यक्त करे, अन्यथा... वह धुंधला-सा या परदेके

 

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पीछे-सा दिखता है, और यह बात नहीं है कि आंखें नहीं देखती, यह ''कुछ और चीज'' है, यह कोई और ही चीज है - सब कुछ नया है ।

 

 (मौन)

 

   यह सच है कि शरीरमें बहुत सद्भावना होनी चाहिये - मेरे शरीरमें सद्भावना है । और यह मानसिक सद्भावना नहीं है, यह सचमुच शारीरिक सद्भावना है । वह स्वीकार कर लेता है, वह सब प्रकारकी असुविधाएं स्वीकार कर लेता है... । लेकिन महत्त्वपूर्ण चीज है वृत्ति, परिणाम नहीं (मुझे विश्वास है कि ये असुविधाएं अनिवार्य नहीं हैं), महत्व है वृत्तिका । हां, वह ऐसी होनी चाहिये (खुले हाथोंकी मुद्रा) । वास्तवमें मैंने देखा है कि अधिकतर उदाहरणोंमें भगवानके प्रति समर्पणमें भगवानके प्रति विश्वास जरूरी तौरपर नहीं आता - तुम भगवानके प्रति समर्पण करते हों, तुम कहते हो : ''तुम भले मुझे कष्ट दो, मैं अपने-आप- को समर्पित करता हू । '' लेकिन यह विश्वासका एकदम अभाव है! हां, वास्तवमें यह बड़ी मजेदार बात है, समर्पणमें ही विश्वास नहीं आ जाता; विश्वास कुछ और हीं चीज है । वह एक प्रकारका... ज्ञान है -- एक ''अटल'' ज्ञान जिसे कोई चीज नहीं हिला सकती -- कि जो चीज... भागवत चेतनामें पूर्ण 'शांति' है उसे स्वयं हम कठिनाई, पीड़ा और दैन्यमें बदल देते हैं । हम यह छोटा-सा रूपांतर ले आते है ।

 

    और असाधारण उदाहरण आये है... । उन्हें समझानेके लिये घंटों लग जायंगे ।

 

    वास्तवमें, चेतनाका परिवर्तन होना चाहिये - यहांतक कि कोषाणुओं- की चेतना भी, समझे?... यह है आमूल परिवर्तन ।

 

  उसे अभिव्यक्त करनेके लिये हमारे पास शब्द नहीं हैं क्योंकि धरतीपर उसका अस्तित्व नहीं है । वह छिपा हुआ तो है, पर प्रकट नहीं । सभी शब्द... दूर रह जाते हैं, वह बिलकुल वही नहीं है ।

 

 (मौन)

 

   तुम चाहो तो कह सकते हों कि हर मिनट ऐसा लगता है कि हम जी मी सकते हैं और मर मी सकते है (जरा इधर-उधर झुकनेका संकेत), या फिर अमर जीवन हों सकता है । हर क्षण ऐसा ही होता है और (दोनों तरफोंमें) इतना कम फर्क है कि उसे देख पाना मुश्किल है । यह

 

नहीं कहा जा सकता : यह करो तो इस तरफ हो जाओगे या वह करो तो उस तरफ हों जाओगे -- यह संभव नहीं है । होनेका यह कुछ ऐसा तरीका है जो लगभग वर्णनातीत है ।

 

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